By: C.P. Singh, Literary Editor-ICN Group
मेरा भी बहुत मन करता है कि मै अपनी माँ की फोटो सबको दिखाऊँ |
जगह – जगह प्रकाशित करवाऊँ | परन्तु मैं ऐसा नहीं कर पाता क्योंकि मेरी माँ तो मेरा
बचपन सुधार कर चली गयी और मेरे पास एक भी फोटो नहीं है मेरी माँ की | मेरे मन
में , मेरे ह्रदय में , मेरी सोंच में और मेरी आँखों में मेरी माँ की वह सारी छवियाँ हैं , जो
मैंने देखीं , उतनी उमर में | फिर भी उनमें से एक का भी प्रिन्ट नहीं निकाल सकता मैं और
ना ही किसी को दिखा सकता |
मेरी जननी , मेरी माँ , मेरी प्रभु , मन्दिर और तीर्थ सभी कुछ तो है मेरी माँ ही | हर
समय विद्यमान है मेरे मन में | माँ के चरणों को स्पर्श करके जो भाव उत्पन्न होते हैं ,
वही शब्दों के रूप में अर्पण हैं , सदैव माँ के चरणों में |
मां- दिवस ( जननी – दिवस )
एक दिवस हर वर्ष विदित है, मां के नाम बना ।
मां से जीवन, मां से ये जग, मां से सब- खून बना ।
मां से ये गति, मां से सांसें, मां से तरु- फूल बना ।
छोटा हो या कोई महान, मां- बिनु नहिं कोई बना ।
मन सोंचे या आंखें देखें, सब मां की ही संरचना ।
एक दिवस हर वर्ष विदित है, मां के नाम बना ।
मां से हैं सब, कुछ नहिं मां बिनु, जीवन हो या सपना ।
इस काया का इक- इक अवयव, मां- क्षरण के बाद बना ।
मिथ्या- जग में केवल मां ही, निःस्वार्थ्य- त्याग- रचना ।
सेमर का फूल, सदा से जग, यहां कोई नहीं अपना ।
एक दिवस हर वर्ष विदित है, मां के नाम बना ।
युग- युग बहु- जीवों में उपजे, कर्मों से हुआ जग में आना ।
प्रभु- कृपा से मानव- तन पाकर, कृत- कृत्य हुआ जीवन अपना ।
बिधि- का अनुपम- उपकार है मां, जिससे जग में जीवन है बना ।
गंगा- मैया- बृह्मा ने दी, मेरी मां भी उन्हीं की संरचना ।
एक दिवस हर वर्ष विदित है, मां के नाम बना ।
यदि- कठिन कोई बिपदा दिखती, रक्षा- हित- मां- तन- ढाल बना ।
उसका अपना- हित कुछ भी नहीं, संन्तति- हित दे सब कुछ अपना ।
जब जैसी सुत- हित आनि पडी, सामयिक- रूप, मां ने है- चुना ।
मां के नौ- रूप, जगत- पूजित, निज- जननी में वे सब दिखना ।
एक दिवस हर वर्ष विदित है, मां के नाम बना ।
मां से मिले- अस्थी- मांस- लहू, तब- जीव- चराचर सब है बना ।
जो- जग- महानतायं हैं या थीं, सबके पीछे- मां- महामना ।
सुत- अच्छे, कपटी या नटखट, मां के उर में बस शुभाषना ।
मां के आंसू हैं- जग- प्रसिद्ध, आशीष से सुत है ध्रुव भी बना ।
एक दिवस हर वर्ष विदित है, मां के नाम बना ।
सांसों हित कोई दिन ही नहीं, जीवन का भी दिन नहीं बना ।
इस- जीव- तत्व का इस जग में, पूजा का कोई दिन नहीं बना ।
मां से धड़कन, मां से जीवन, मां सम कोई पूजन नहीं बना ।
मां बिनु बाकी के दिन कैसे? क्यों हर दिन मां हित नहीं बना ?
एक दिवस हर वर्ष विदित है, मां के नाम बना ।
त्याग और ममता, काया- धर, घर-घर में “मां”बन रहती ।
त्याग और ममता, काया- धर, घर-घर में “मां”बन रहती ।
मैं- रोंऊ या दुःखी- दिखूं, मां मुझसे- पहले रो देती ।
मेरे- मुख- मण्डल की हंसी- हित, हर- प्रयास मां कर- लेती ।
ये- देखो,ये- खाओ-पिओ, ऐसे- खेलो. कह-संग भी खेलती ।
असफल- रहने पर, सुत का दुःख, हर सम्भव से कह देती ।
त्याग और ममता, काया- धर, घर-घर में “मां”बन रहती ।
ब्रत- रखती, पूजा- करती, प्रभु से सुत- हित, सब कुछ कहती ।
खुद में कितने ही दुःख हों, सुत के दुःख को पहले लखती ।
श्वयम- शयन- कलुशित- गीले में, सुत- हित- उत्तम- बिधि करती ।
सुत- प्रदत्त सारे कष्टों को, मां उर मे नहिं रख सकती ।
त्याग और ममता, काया- धर, घर-घर में “मां”बन रहती ।
मेरे- जन्म से बहुत पूर्व से, बिविध- कष्ट – निशि- दिन सहती ।
इक- इक- पल- सुत के आगम का, अकथ- दर्द सहती- बचती ।
कष्टों का अथाह सागर तर, प्रभु- प्रदत्त- निधि “मां” बनती ।
इस जग के नियमित जीवन हित, अपृतिम- क्लेश सहन करती ।
त्याग और ममता, काया- धर, घर-घर में “मां”बन रहती ।
समय- बद्ध- गतिमय- जीवन, संतति- नियमित- उन्नति करती ।
क्षणिक-खुशी सुत- हित सुनकर, मां, उर उल्लास से भर लेती ।
बिधि, शरीर धारण कर, जग में, जीवन- गति- हित “मां “बनती ।
जीवन की अंतिम सांसों तक, सब तजि बस सुत- हित भजती ।
त्याग और ममता, काया- धर, घर-घर में “मां”बन रहती ।
मां से हम-सब, मां से जीवन, मां से यह सब दुनियां चलती ।
वेद- पुरांण- संत वांणी नित, मां की महिमां कहीं नहिं थकती ।
मूढ-मती- “चाकर” कहे कैसे, जग में मां है किस बिधि रहती ।
“मां- प्रदत्त- जीवन” देकर भी, संतति- उऋण न हो सकती ।
त्याग और ममता, काया- धर, घर-घर में “मां”बन रहती ।
क्रमशः